इस लेख में आपको अनंत चतुर्दशी व्रत कथा दी गयी हैं, इस दिन भगवान विष्णु के अनंत स्वरूपों की पूजा की जाती है तथा उनसे कामना की जाती हैं कि वह सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करें, और जो सच्चे मन से इस व्रत को करता हैं उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।
अनंत चतुर्दशी व्रत कथा – Anant Chaturdashi Vrat Katha
राजा युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे थे, तथा जहाँ यज्ञ हो रहा था वह पंडाल अत्यंत सुंदर था। इस मंडप की सुन्दरता को देखने के लिए कई लोग भी आये हुए थे जो इसकी सुन्दरता को देख कर अत्यधिक प्रसन्न हुए तथा यह मंडप इतना अद्भुत था की इसके समीप उपस्थित तालाब और इसमें कोई अंतर नहीं दिख रहा था, इसी कारण दुर्योधन उस तालाब में जा गिरता है जो पंडाल के समीप था। दुर्योधन के गिरने के बाद द्रौपदी ने दुर्योधन को “अंधो की संतान अंधी” कह दिया जिसके फलस्वरूप दुर्योधन क्रोधित हो गया और उसके मन में पांडवों से बदला लेने की भावना उत्पन्न हो गयी। उसके मन में प्रतिदिन इस अपमान का बदला लेने के विचार आते थे।
एक दिन दुर्योधन ने पांडवों के साथ जुआ खेला जिसमे दुर्योधन ने द्यूत-क्रीड़ा से पांडवों को हरा दिया और हार जाने के कारण पांडवो को वनवास जाना पड़ा। उन्हें 12 वर्ष का वनवास झेलना था और इस बीच उन्हें कई समस्याएँ आने लगी, इस दौरान कृष्ण जी उनसे मिलने आते हैं और कहते हैं कि यदि वह अनंत एकादशी का व्रत करेंगे तो उनकी समस्याएँ शीघ्र ही खत्म हो जाएगी और उन्हें उनका राज्य भी मिल जाएगा जो वह जुएँ में हार गये थे और उन्हें एक प्राचीन कथा भी सुनाई। वह कथा कुछ यु थी कि “एक तपस्वी ब्राह्मण था जिसका नाम सुमंत और इसकी पत्नी का नाम दीक्षा था इनकी एक सुंदर जी संस्कारी लड़की भी जिसका नाम सुशीला था, दुर्भाग्य से सुशीला के जन्म के कुछ समय बाद ही सुमंत की पत्नी दीक्षा की मृत्यु हो जाती है, तो ब्राह्मण दूसरी शादी कर लेता है तथा उसकी दूसरी पत्नी का नाम कर्कशा था।
ब्राह्मण की बेटी का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ तय होता है तथा कौंडिन्य ऋषि अपनी कर्कशा से किसी कारण से नाराज़ हो कर शादी के दिन ही उनके घर से तुरंत निकल जाते हैं तथा शाम के समय निकलने के कारण उन्हें रास्ते में ही रात हो जाती है तो वह एक तट पर विश्राम करते हैं जिसमे समीप कुछ महिलाएं अनंत देवता की पूजा करती हुई नज़र आती है तथा चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधती हैं, यह देख सुशीला उनके पास जाती है और वह इस बारें में सम्पूर्ण जानाकरी लेती है तो उसे वहां की महिलाएं बताती है कि अनंत चतुर्दशी का व्रत करने से, चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बाँधने से और अनंत देवता की पूजा करने से सारे दुःख दर्द पीढ़ा खत्म हो जाती है या फिर कभी भी निकट नहीं आती है।
यह सुन सुशीला भी भगवान की पूजा करती है और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बाँध लेती है, पर उसका पति इस सब में बिलकुल भी विश्वास नहीं करता है और उस चौदह गांठों वाले डोरे को तोड़ कर अग्नि में फेक देता है जिस कारण भगवान उससे नाराज़ हो जाते हैं और कौंडिन्य ऋषि का बुरा समय प्रारम्भ हो जाता है तथा वर्षो तक वह परेशानियों से घीरा रहा है।
कई वर्षो तक ऐसा ही चलता रहता है तो कौंडिन्य ऋषि उसी स्थान पर जा कर प्रभु से विनती करते हैं जहाँ उन्होंने डोरे का अपमान किया था। भगवान उनकी आखों में अश्रु देखते हैं और वह प्रकट होते हैं और उन्हें कहते हैं कि यदि वह अनंत एकादशी को व्रत करेंगे और प्रभु की पूजा करेंगे तो उनके कष्टों का अंत हो जाएगा। “
तथा कृष्ण की इस कथा के बाद पांडव भी अनंत चतुर्दशी का व्रत विधि विधान से करते हैं।

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