गांधी इरविन समझौता 5 मार्च, 1931 को हुआ था, यह समझोता गाँधी जी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के मध्य हुआ था। कहा जाता है कि इससे पहले अंग्रेजों ने कभी भी इस तरह से समान स्तर पर भारतियों के साथ कोई समझोता नहीं किया था, यह पहली बार ही था क्योकि वह समझ गये थे कि गाँधी जी और कांग्रेस के बिना किसी तरह का फैसला लेना सम्भव नहीं है। इस समझते में गाँधी जी ने कई शर्ते रखी तथा सरकार ने कई शर्तों को मन लिया जैसे – हिंसा के आरोपियों को छोड़कर सभी राजनीतिक बन्दियों को रिहा कर दिया जाएगा। भारतियों को पुनः समुद्र के किनारे नमक के निर्माण का अधिकार मिल जाएगा, नमक के लिए गाँधी जी ने पहले अहमदाबाद में साबरमती आश्रम से दांडी यात्रा निकाली थी और समुद्र तट पर जा कर अंग्रेजी के इस भारतियों द्वारा नमक न बनाएं जाने के कानून का उल्लंघन किया था पर ऐसा करने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। पर इस आन्दोलन से लॉर्ड इरविन अंतराष्ट्रीय दबाव बन गया था।
इस समझोते के बाद भारतीय शराब एवं विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने धरना दे सकते थे। इसके अलावा आन्दोलन के दौरान त्यागपत्र देने वाले सभी लोगों को उनके पदों पर पुनः बहाल किया गया। लोगों की जपत की गयी सम्पत्तियो को वापस कर दिया गया। तथा वहीं इरविन की तरफ से कई मांग की रखी गई थी जिसमे कहा गया था पहली मांग कि सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया जाएगा, मांग थी कि कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी. एवं गांधीजी पुलिस की ज्यादतियों की जांच की मांग छोड़ देंगे।
ज्ञानग्रंथ का WhatsApp Channel ज्वाइन करिये!कई इतिहासकारों का कहना है कि गाँधी जी ने सरकार पर भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी रोकने के लिए कड़े दबाव नहीं बनाएं, अगर गाँधी जी चाहते तो भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी रुक सकती थी। भगत सिंह को अक्टूबर 1930 में मौत की सजा सुनाई गई थी और इस समय भगत सिंह मात्र 23 के ही थे पर गांधी जी ने अपने पत्र में बस इतना कहा था कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी न दी जाये तो बेहतर होगा।
अंग्रेजों ने इस बार को गम्भीरता से नहीं लिया और विवादों को देखते हुए भगत सिंह को एक दिन पहले ही फांसी दे दी गयी। पर सुभाष चंद्र बोस उस समय कांग्रेस के सदस्य थे, फिर भी उन्होंने 20 मार्च, 1931 को दिल्ली में एक बड़ी सार्वजनिक बैठक की और मृत्युदंड के खिलाफ विरोध प्रदर्शन।
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