भगवान विष्णु के सत्य सवरूप सत्यनारायण भगवान की कथा को सुनने से कई लाभ मिलते हैं, यह कथा हिन्दू धर्म की सबसे प्रसिद्द कथा है यह कथा स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से संकलित की गई है। सत्यनारायण को ईश्वर का सत्य रूप माना गया है और कहा जाता है कि दुनिया में केवल सत्यनारायण ही सत्य है बाकि सब माया है। कथा में सत्यनारायण भगवान से जुडी कई बातें बताई गयी है। इनकी कथा यदि पूर्णिमा अपर की जाएँ तो सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है तथा सारे दुःख दर्द मिट जाते हैं सत्यनारायण पूजा भगवान विष्णु की एक धार्मिक अनुष्ठान पूजा है। पूजा का वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है, जो मध्यकालीन युग का संस्कृत पाठ है।। आगे इस लेख में पूर्णिमा व्रत कथा सत्यनारायण भगवान की दी गयी हैं साथ ही पूजा के लिए आवश्यक सामग्री व विधि भी बताई गयी है।
आवश्यक सामग्री
सत्यनारायण जी पूजा पुरे विधि विधान से करना चाहिए, इसके लिए आपको शालिग्राम जी की मूर्ति, गंगा जल, कलश, कपूर, लाल चंदन, चावल, दूध, नेवेद, फूल, आम की लकड़ी, जनेऊ, जो, रुई, हवन, हवन सामग्री, देसी घी, शहद, पुष्प, सुपारी, इत्र , कपडा स्व मीटर का वह भी पीले रंग का आदि सामग्री चाहिए।
पूजन विधि
पूर्णिमा करके पूजा स्थान में आसन पर बैठे और मुहूर्त के अनुसार पूजन प्रारम्भ करने। भगवान की मूर्ति आदि के लिए स्टूल रखें और केले के पत्तों, भगवान की तस्वीर या शालिग्राम जी और गणेश जी की मूर्तियों रखें और एक कलश समीप में ही रख दें। सबसे पहले कलश की पूजा करें और फिर श्री गणेश, गौरी, वरुण, विष्णु आदि सभी देवताओं का ध्यान करें और पूजा करें। भगवान सत्यनारायण की हमेशा पूजा करने और कथा सुनने का संकल्प लें, फिर हाथ में फूल लें और भगवान सत्यनारायण का ध्यान करें।
यज्ञ अग्नि, फूल, धूप, औषधि आदि अर्पित करके अनुष्ठान करें और स्तुति करें – हे भगवान! मैंने अत्यंत श्रद्धा से तुम्हें फल, जल आदि अर्पित किये हैं, कृपया उन्हें स्वीकार करें। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं इसके बाद, सत्यनारायण जी की कथा पढ़ें, बड़ों से आशीर्वाद लें, भगवान को प्रशाद बाटने के बाद सभी प्रशाद का वितरण करें। इस पूजा के लिए और कथा सुनने के लिए किसी जानकार पंडित की सहायता ले और हो सकें तो उनसे ही कथा का वाचन करवाए। । आप सत्यनारायण व्रत कथा, आरती और पूजा के यह पढ़ना जारी रख सकते हैं।
श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत कथा (Satyanarayan Vrat Katha)
श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा पहला अध्याय
एक समय की बात है नैषिरण्य तीर्थ में शौनकादि, अठ्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूतजी से पूछा हे प्रभु इस कलियुग में वेद विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिल सकती है? तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ ! कोई ऎसा तप बताइए जिससे थोड़े समय में ही पुण्य मिलें और मनवांछित फल भी मिल जाए। इस प्रकार की कथा सुनने की हम लोग इच्छा रखते हैं। सभी शास्त्रों के ज्ञाता सूत जी बोले – हे वैष्णवों में पूज्य आप सभी ने प्राणियों के हित की बात पूछी है इसलिए मैं एक ऎसे श्रेष्ठ और व्रत के बारे में आप लोगों को जरूर बताऊँगा जिसके बारे में नारद जी ने लक्ष्मीनारायण जी से पूछा था और लक्ष्मीपति श्रीहरी ने नारद जी से कहा था। अब आप भी इसे सुनिए। एक समय की बात है,नारद जी दूसरों के हित की इच्छा लिए अनेकों लोको में घूमते हुए मृत्युलोक में जा पहुंचे। यहाँ उन्होंने अनेक योनियों में जन्मे सभी मनुष्यों को अपने कर्मों के अनुसार पीड़ा झलत हुए देखा। उनका दुख देख नारद जी सोचने लगे कि ऐसा क्या किया जाए जिससे निश्चित रुप से मानव के दुखों का अंत हो जाए। इसी विचार पर मनन करते हुए वह विष्णु लोक में गए। वहाँ वह नारायण की स्तुति करने लगे और बोले – हे भगवान आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं। निर्गुण स्वरुप सृष्टि के कारण भक्तों के दुख को दूर करने वाले है,आपको मेरा प्रणाम। नारद जी की स्तुति सुन विष्णु भगवान बोले मुनिश्रेष्ठ आपके मन में क्या बात है? उसे नि संकोच कहो। इस पर नारद मुनि बोले कि मृत्युलोक में अनेक योनियों में जन्मे मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अनेको दुख से दुखी हो रहे हैं। हे प्रभु आप तो ये बताइए कि वो मनुष्य थोड़े प्रयास से ही अपने दुखों से कैसे छुटकारा पा सकते है। तब श्रीहरि बोले –हे नारद मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत उत्तम प्रश्न पूछा है। स्वर्ग लोक व मृत्युलोक दोनों में एक दुर्लभ उत्तम व्रत है जो पुण्य़ देने वाला है। आज प्रेमवश होकर मैं उसे तुमसे कहता हूँ। श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक करके मनुष्य तुरंत ही यहाँ सुख भोग कर, मरने पर मोक्ष पाता है। श्रीहरि के वचन सुन नारद जी बोले कि उस व्रत का फल क्या है प्रभु ? और उसका विधान क्या है? यह व्रत किसने किया था? इस व्रत को किस दिन करना चाहिए? आप सब कुछ विस्तार से बताएँ। नारद की बात सुनकर फिर श्रीहरि बोले- दुख व शोक को दूर करने वाला यह सभी स्थानों पर विजय दिलाने वाला है। मानव को भक्ति व श्रद्धा के साथ शाम को श्रीसत्यनारायण की पूजा धर्म परायण होकर ब्राह्मणों व बंधुओं के साथ करने साथ ही यथा सक्ति अनुसार भक्ति भाव से भगवान का भोग लगाएँ। आरती गाये और ब्राह्मणों सहित बंधु-बाँधवों को भी भोजन कराएँ,उसके बाद स्वयं भोजन करें। कीर्तन, भजन के साथ भगवान की भक्ति में लीन हो जाएं। इस तरह से सत्य नारायण भगवान का यह व्रत करने पर मनुष्य की सारी इच्छाएँ निश्चित रुप से पूरी होती हैं। इस कलि काल अर्थात कलियुग में मृत्युलोक में मोक्ष का यही एक सरल उपाय बताया गया है।
श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा दूसरा अध्याय
सूत जी बोले – हे ऋषियों ! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा – हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते हो? दीन ब्राह्मण बोला – मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ। भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ। यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो बताइए। वृद्ध ब्राह्मण रुपी भगवन ने कहा कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो। इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए। अगले दिन सुबहे उठने के साथ ही उस बूढ़े ब्राह्मण ने मन में संकल्प लिया की सत्यनारायण का व्रत करूंगा और फिर अपने नित्ये कामो से फ्री हो कर वह भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन उसे भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने परिवार के साथ भगवान सत्यनारायण की पूजा की वे का व्रत रखा इस व्रत के करने के कुछ दिन बाद उसके सभी दुखों और कष्ट दूर होने लगे और दखते ही दकते और एक सम्पन और अनको सम्पत्तियों का मालिक बन गया। तब हर महीने की पूर्णिमा के दिन वे ब्राह्मण सत्यनारायण की पूजा वे व्रत करने लगा। इस प्रकार सत्यनारायण भगवान् के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों और गरीबी से मुक्त हो गया और उसने एक दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया। इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा। सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा। हे विप्रो मैं अब और क्या कहूँ? ऋषि बोले –हे मुनिवर! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है। सूत जी बोले – हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है, वह सब सुनो! एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा उनको व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से आपको क्या फल मिलेगा? कृपा करके मुझे भी बताएँ। ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है। इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है। विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्री सत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को ले बूढ़ा आदमी सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिला। बूढ़ा प्रसन्नता के साथ पैसे लेकर सत्यनारायण भगवान की मूर्ति और व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने परिवारजनो को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया
श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा तीसरा अध्याय
सूतजी बोले –हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा कहता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा–हे राजन! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप कृपा करके मुझे बताएँ। राजा बोला में अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला हे राजन! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया। साधु ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा। साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा। एक दिन कलावती के माँ लीलावती ने अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था। उसे करने का समय आ गया है,आप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो उसे लगा की की उसकी कन्या अब विवहा योग्ये हो गई है। और उसने कन्या के योग्य वर ढूढ़ना सुरु कर दिया। एके दिन साधु की बात को ध्यान में रखते हुए एके नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से एक चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर प्रसन्नता से राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैं, आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। श्रीसत्यनारायण भगवान से श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई। माता के कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या है? कलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें। श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि–हे राजन! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है। उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब कहकर वह अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि उन दोना को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ। दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा बोला महानुभावों भाग्यवश ऐसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऐसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।
श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा चतुर्थ अध्याय
सूतजी बोले – वैश्य ने मंगलाचार कर अपनी यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चल दिए। उनके थोड़ी दूर जाने पर एक दण्डी वेशधारी श्रीसत्यनारायण ने उनसे पूछा – हे साधु तेरी नाव में क्या है? अभिवाणी वणिक हंसता हुआ बोला –हे दण्डी! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल व पत्ते भरे हुए हैं। वैश्य के कठोर वचन सुन भगवान बोले – तुम्हारा वचन सत्य हो। दण्डी ऐसे वचन कह वहाँ से दूर चले गए। कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए। दण्डी के जाने के बाद साधु वैश्य ने नित्य क्रिया के पश्चात नाव को ऊँची उठते देखकर अचंभा माना और नाव में बेल-पत्ते आदि देख वह मूर्छित हो ज़मीन पर गिर पड़ा। वापस होश आने पर वह अत्यंत शोक में डूब गया तब उसका दामाद बोला कि आप शोक ना मनाएँ, यह दण्डी का शाप है इसलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद की बात सुनकर वह दण्डी के पास पहुँचा और अत्यंत भक्तिभाव नमस्कार कर के बोला- मैंने आपसे जो असत्य वचन कहे थे उनके लिए मुझे क्षमा दें, ऐसा कह कहकर रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले- हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है। तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला- हे भगवान! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइए, अब मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो। साधु वैश्य के भक्तिपूर्वक वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वरदान देकर अन्तर्धान हो गए। ससुर-जमाई दोनों जब नाव पर आए तो नाव धन से भरी हुई मिली फिर वहीं अपने अन्य साथियों के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपने नगर को चल दिए। जब नगर के नजदीक पहुँचे तो दूत को घर पर खबर करने के लिए भेज दिया। दूत साधु की पत्नी को प्रणाम कर कहता है कि मालिक अपने दामाद सहित नगर के निकट आ गए हैं। दूत की बात सुन साधु की पत्नी लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपनी पुत्री कलावती से कहा कि मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना। माँ के ऐसे वचन सुन कलावती जल्दी में प्रसाद छोड़ अपने पति के पास चली गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण श्रीसत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए और नाव सहित उसके पति को पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को वहाँ ना पाकर रोती हुई जमीन पर गिर गई। नौका को डूबा हुआ देख व कन्या को रोता देख साधु दुखी होकर बोला कि हे प्रभु! मुझसे तथा मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करें। साधु के दीन वचन सुनकर श्रीसत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी हुई-हे साधु तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटती है तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा। ऐसी आकाशवाणी सुन कलावती ने वैसे ही किया जैसा आकाशवाणी के दौरान भगवान ने कहा। और फिर प्रसाद ग्रहण करने के बाद जब वो वापस आई तो अपने पति के दर्शन करके अत्यंत प्रसन हुई। उसके बाद साधु अपने बंधु-बाँधवों सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का विधि-विधान से पूजन करता है। इस लोक का सुख भोग वह अंत में स्वर्ग जाता है।
श्रीसत्यनारायण भगवान व्रत कथा पाँचवां अध्याय
सूतजी बोले –हे ऋषियों! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख सान किया। एक बार जंगल में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमान वश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को प्रणाम किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान के अनादर का ही परिणाम है। वह दोबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है। तब सूतजी बोले-जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है। अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया। कथा सुनें के बाद सभी ने श्रीहरी का झुक कर प्रणाम किया।
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