संस्कृत दुनिया की प्राचीनतम भाषा मेसे एक है और यह हिन्दू धर्म में एक विशेष स्थान रखती है। प्राचीन काल में जितने भी वैद, पुराण और ग्रन्थ हुए है सभी इस संस्कृत भाषा में ही रचित है। यदि आप एक प्रचलित श्लोक शीलं परम भूषणम् का अर्थ खोज रहे हैं तो आपको हमारे इस लेख में इसका अर्थ मिल जाएगा।
शीलं परम भूषणम् का अर्थ
ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो ।
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः । ।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभावितुर्धर्मस्य निर्व्याजता ।
सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ।।
यह पूरा श्लोक है जिस मेसे यह शीलं परम भूषणम् लिया गया है।
शीलं परम भूषणम् का अर्थ है कि शिष्टाचार ही सबसे बड़ा आभूषण है।
यह श्लोक शतकत्रय ग्रन्थ के तीन खंडो में से एक खंड नीतिशतकम् से लिया गया है जिसके रचियता भर्तृहरि है। इनके इस ग्रन्थ के प्रत्येक खंड में 100 श्लोक है। उन्होंने अपने कई अनुभवो को इस ग्रन्थ में साझा किया है। नीतिशतकम् में सज्जनता, दुर्जनता, अहंकार, विद्या आदि के बारें में वर्णन किया गया है।
भावार्थ – संसार में कई तरह के आभूषण उपस्थित है पर शिष्टाचार एक ऐसा आभूषण है जो सबसे महत्वपूर्ण और विशेष है। यदि आप ऊपर से नीचे तक सोने चांदी के आभूषण पहन भी ले तो यह सब व्यर्थ है। शिष्टाचार यानिकी सज्जनता, दान-धर्म सेवा, उच्च विचार, कर्तव्यो का पालन आदि।
एक शिष्टाचारी व्यक्ति कभी किसी भी प्रकार का गलत काम नहीं करता है और हमेशा से ही सम्मान का हकदार होता है। इसीलिए शिष्टाचार को सबसे श्रेठ आभूषण बताया गया है। शिष्टाचारी व्यक्ति का स्वभाव भी सबसे श्रेष्ठ होता है और यह हमेशा गरिमा में रहते हैं। इन सब के अलावा स्वभाव की कोमलता, सहनशीलता, उदारता, भूल स्वीकार करने में तत्परता भी शिष्टाचारी व्यक्ति की पहचान है।
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